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विश्लेषण: बिहार का नीतीश मॉडल: भूख, जाति और सत्ता का बंधुआ समीकरण

✍️ डॉ. प्रवीण कुमार

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के प्रत्याशियों का भाग्य अब EVM में बंद है। गांव-कस्बों से लेकर सोशल मीडिया तक बस एक ही सवाल गूंज रहा है — “क्या नीतीश कुमार फिर लौटेंगे?”
एग्ज़िट पोल के शुरुआती रुझान बताते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर सत्ता में वापसी कर सकते हैं —
भले ही जनता के बीच उनकी लोकप्रियता, शारीरिक और मानसिक स्थिति दोनों पर गंभीर सवाल उठ चुके हों। लेकिन असली सवाल यह नहीं कि नीतीश फिर लौटेंगे या नहीं।
सवाल यह है कि बिहार बार-बार उसी नेतृत्व को क्यों चुनता है, जो राज्य को पिछड़ेपन से निकालने के बजाय भूख और जाति की राजनीति में और गहराई तक धकेल देता है।

नीतीश की जातिवादी राजनीति — सत्ता की सबसे बड़ी उपज

नीतीश कुमार की राजनीति को समझना, दरअसल जातीय प्रयोगशाला को समझना है। उन्होंने OBC को बाँटकर EBC (अति पिछड़ा वर्ग) बनाया और SC को तोड़कर “महादलित” वर्ग की नई श्रेणी गढ़ी। इस जातीय विभाजन ने बिहार की सामाजिक एकता को कमजोर किया, पर नीतीश कुमार को स्थायी सत्ता का समीकरण दे दिया। अब राजनीति का फोकस विकास नहीं, बल्कि यह तय करना है कि कौन-सी जाति को कितने राशन कार्ड, कितनी योजनाएँ और कितने वादे देने हैं। यही है “नीतीश मॉडल” की असली USP।

महादलित: भूख और वोट के बीच फँसा समाज

बिहार की लगभग 13 करोड़ आबादी में से 22% (करीब 2.3 करोड़ लोग) महादलित समुदाय से हैं। यह वही वर्ग है जो गरीबी, अशिक्षा और सामाजिक उपेक्षा की चपेट में सबसे अधिक है — और यही नीतीश कुमार की राजनीति का स्थायी स्तंभ भी। सरकार NFSA और PMGKAY के तहत 8.71 करोड़ लाभार्थियों को मुफ्त राशन देती है,
जिनमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी महादलितों और अति-पिछड़ों की है। बीस वर्षों में भूख मिटाई नहीं गई, बल्कि भूख को बाँधकर वोट बैंक में बदला गया।

शिक्षा: अंधकार में रखी गई चेतना

2001 में महादलितों की साक्षरता दर 20% थी। 2011 में यह 38% पर पहुँची, लेकिन मुसहर जैसे समुदायों में यह आज भी 3–4% से ज़्यादा नहीं है। इन्हें शिक्षित होने नहीं दिया गया ताकि सत्ता से सवाल न पूछ सकें। इनके घरों में पढ़ालिखा ही नहीं इसलिए इन घरों में रोज़गार या बदलाव मुद्दा नहीं, मुफ्त राशन मुद्दा है।

रोज़गार: सपना जो कभी साकार नहीं हुआ

महादलित वर्ग की सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी 1% से भी कम और मुसहर समुदाय में केवल 0.3% है। बाकी लोग अब भी मनरेगा, दिहाड़ी या खेतिहर मजदूरी में हैं। “रोज़गार” को नीतीश कुमार ने राजनीतिक झुनझुना बना दिया है।

फ्री राशन मॉडल: भूख के बदले वोट

नीतीश कुमार ने बिहार को ऐसे मॉडल पर ला खड़ा किया है,
जहाँ जनता की थाली ही राजनीति का प्रतीक बन चुकी है।
मुफ्त अनाज की राजनीति ने भूख को खत्म नहीं किया,
बल्कि उसे सत्ता की स्थायी गारंटी में बदल दिया है।
जब पेट किसी और के दिए हुए अनाज से भरे,
तो विरोध का साहस भी उसी थैले में बंध जाता है।

नीतीश कुमार की मानसिक स्थिति और राजनीतिक सच

बीते दो वर्षों से नीतीश कुमार की मानसिक और शारीरिक स्थिति पर सवाल उठ रहे हैं। विधानसभा में महिलाओं को लेकर असभ्य टिप्पणियाँ, जनसभाओं में असंबद्ध भाषण और निर्णय-क्षमता में गिरावट ने यह साफ कर दिया है कि वे अब पहले जैसे नहीं रहे।अगर इसके बावजूद वे 2025 में दोबारा सत्ता में आते हैं, तो यह जीत नीतीश कुमार की नहीं, भूख और जातीय निर्भरता की जीत होगी।

बिहार में लोकतंत्र अब थाली से चलता है

बिहार का लोकतंत्र अब विचार या नीति से नहीं,
थाली और राशन कार्ड से पोषित होता है। “सुशासन” की जगह अब “राशन-शासन” ने ले ली है। जनता अब नागरिक नहीं रही, बल्कि मुफ्त योजनाओं की ग्राहक बन गई है।
सवाल अब यह नहीं कि विकास कितना हुआ, बल्कि यह कि “कितने किलो चावल, कितने महीने तक और कौन देगा?”

बिहार का भविष्य — भूख और भ्रम के बीच

अगर नीतीश कुमार 2025 में फिर जीतते हैं,
तो यह जीत किसी नीति, विज़न या सुशासन की नहीं होगी,
बल्कि भूख, निर्भरता और जातीय विखंडन की जीत होगी।
जब तक भूख राजनीति का औज़ार बनी रहेगी, बिहार का लोकतंत्र थाली में परोसे वादों पर ही अपना भविष्य खोजता रहेगा।


📍 लेखक: डॉ. प्रवीण कुमार
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
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